ये है आधुनिक डिजिटल इंडिया की तस्वीर, गाड़ी को कीचड़ से निकालने जूझ रहे बच्चे

जिन नन्हे हाथो को कलम चलाना सीखना है, वह विद्यालय पहुंचाने वाली अपनी गाड़ी को कीचड़ से निकालने जूझ रहे है। ये तस्वीर आधुनिक डिजिटल इंडिया की है। रीवा जिले के पैपखरा गांव की। रायपुर कर्चुलियान जनपद के उकठा कंचनपुर ग्राम पंचायत के अधीन पैपखरा गांव में आजादी के 75 वर्ष बाद भी पक्की सडक़ नहीं है।

रीवा। बरसात के दिन शुरु हो चुके हैं। साथ ही, विद्यालयों में शैक्षणिक सत्र भी आरम्भ हो गया है। अब गांव से विद्यालय जाने वाले बच्चों को लगभग प्रतिदिन ऐसे ही वाहनों को पहले धक्का मारना पड़ता है। जैसे-तैसे वाहन जब कीचड़ से निकलते हैं, तब बच्चे विद्यालय पहुँच पाते हैं। उल्लेखनीय है कि रीवा जिले में 820 ग्राम पंचायतें हैं। इन ग्राम पंचायतों के अधीन छोटे मजरा, टोला मिलाकर करीब ढाई हजार गांव हैं। इनमें से 65 प्रतिशत गांवों की हालत आज भी खराब हैै। पैपखरा गांव की तरह न जाने ऐसे कितने गांव हैं, जहां के लोगों को इन बरसात के दिनों में कैद रहना पड़ता है। वर्ष 2003 तक प्रदेश में चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या अब भाजपा की। सभी के बड़े-बड़े दावे, इन गांव की कच्ची सडक़ों पर आकर चारों खाने चित हो जाते हैं। प्रदेश में पिछले 20 वर्ष से भाजपा की सरकार है। जिले में 10 वर्षों से लगातार भाजपा का सांसद है। जिले की आठों विधानसभा में भाजपा के विधायक हैं। इसके बाद भी गांवों की ऐसी दुर्दशा देखकर ग्रामीणों के पास पछतावे के अलावा और कुछ नहीं है। अब ग्राम विकास की ऐसी बुरी स्थिति में सरकारी तंत्र डिजिटल इंडिया जैसी डींग हांकता है तो गांवों को यह मजाक ही लगता है।

तराई क्षेत्रों की हालत ज्यादा खराब
रायपुर कर्चुलियान का पैपखरा गांव गुढ़ विधानसभा के अंतर्गत आता है। अकेले गुढ़ विधानसभा में ही कच्ची सडक़ों वाले गांवों की संख्या दो सौ से ज्यादा है। सबसे ज्यादा खराब हालत तो तराई क्षेत्र के गांवों की है, जो सिरमौर व त्योंथर विधानसभा में आते हैं। ऐसे ही अन्य विधानसभा क्षेत्रों के गांवों का भी बुरा हाल है। यह बुरे हाल तब तक रहेंगे, जब तक जनता जिम्मेदारों को सुधारने एकजुट नहीं होगी, सजग और जागरूक नहीं होगी।

जांच के नाम पर बढ़ता कमीशन का दायरा
आलम यह है कि इन गांवों में विकास का ठेका लेने वाली प्राथमिक एजेंसी ग्राम पंचायत के अधिकांश जिम्मेदार विकास के पैसा का ज्यादा हिस्सा स्वयं हजम कर लेते हैं, जिसमें जनपद तक का कमीशन फिक्स रहता है। कभी ग्रामीणों ने शिकायत की तो जांच के नाम पर इस कमीशन का दायरा और बढ़ जाता है। अब भला ऐसे सामाजिक व सरकारी वातावरण में ग्राम स्वराज, सशक्त व सक्षम ग्राम की आकांक्षा कभी फलीभूत होगी, मुश्किल लगता है।